मौसम का बदलता मिजाज: कम तापमान में भी ज्यादा गर्मी, जानिए हेल्थ इम्पैक्ट

जलवायु परिवर्तन के असर अब सिर्फ रिकॉर्ड तोड़ गर्मियों तक सीमित नहीं रहे हैं, बल्कि अब कम तापमान में भी ज्यादा गर्मी का अहसास होने लगा है।

ये स्थिति सेहत के लिए गंभीर खतरे का संकेत हो सकती है। ताजातरीन वैज्ञानिक शोध और मेडिकल रिपोर्ट्स के मुताबिक, ये स्थिति शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकती है।


क्या है ये अनोखी स्थिति?

हम आमतौर पर जो तापमान देखते हैं, वो ड्राई बल्ब तापमान कहलाता है, यानी थर्मामीटर पर दिखने वाला तापमान।

लेकिन असल में इंसानी शरीर जिस तरह गर्मी महसूस करता है, वो सिर्फ तापमान पर नहीं, बल्कि हवा में मौजूद नमी यानी ह्यूमिडिटी पर भी निर्भर करता है।

इसका बेहतर मापदंड है वेट बल्ब तापमान (Wet Bulb Temperature - WBT), जो दर्शाता है कि शरीर से निकलने वाला पसीना कितनी तेजी से सूख सकता है।

जब ह्यूमिडिटी ज्यादा होती है तो पसीना सूखता नहीं है और शरीर को ठंडक नहीं मिल पाती, नतीजा ये होता है कि भले ही तापमान कम हो, लेकिन व्यक्ति को बहुत ज्यादा गर्मी महसूस होती है। इसे ही हीट इंडेक्स भी कहा जाता है।


सेहत पर कैसे पड़ता है असर?

शरीर का तापमान अगर 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए तो हीट स्ट्रोक का खतरा होता है। इसके लक्षणों में चक्कर आना, थकावट, चिड़चिड़ापन, दिल की तेज़ धड़कन और सांस लेने में दिक्कत शामिल हैं।

ज्यादा गर्मी में पसीना शरीर से बाहर तो निकलता है लेकिन जब वो सूखता नहीं है, तो शरीर अंदर से और ज्यादा गरम होने लगता है। इससे इलेक्ट्रोलाइट्स की कमी, डिहाइड्रेशन, और बेहोशी जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

दिल के मरीजों के लिए ये और खतरनाक हो सकता है, क्योंकि शरीर को ठंडा रखने के लिए दिल को अधिक मेहनत करनी पड़ती है। इससे हृदय पर दबाव बढ़ता है और गंभीर स्थिति बन सकती है।


मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर

लंदन की यूनिवर्सिटी कॉलेज के रिसर्चर प्रो. संजय सिसोदिया की रिसर्च के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन और तापमान में बदलाव का मानसिक स्वास्थ्य पर भी सीधा असर पड़ता है।

इस शोध को मेडिकल जर्नल ‘द लैन्सिट न्यूरोलॉजी’ में प्रकाशित किया गया है, जिसमें ये बताया गया है कि कम तापमान में महसूस होने वाली अधिक गर्मी माइग्रेन, डिप्रेशन, एंग्जायटी और अल्जाइमर जैसी न्यूरोलॉजिकल बीमारियों को बढ़ा सकती है।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि मौजूदा हालात ऐसे ही बने रहे तो 2030 तक मेंटल हेल्थ डिजीज का खतरा 11% और 2050 तक 27.5% तक बढ़ सकता है।


किन लोगों को होता है ज्यादा खतरा?

  • बच्चे और बुजुर्ग: जिनकी थर्मोरेगुलेटरी क्षमता कम होती है।

  • डायबिटीज, हाइपरटेंशन और हार्ट डिजीज से पीड़ित लोग

  • मानसिक रोगों से पीड़ित व्यक्ति, जिनके लिए बाहरी तापमान बदलाव ज़्यादा असर डालता है।

  • युवा और टीनएजर्स, जिनकी दिनचर्या बाहर की गतिविधियों से जुड़ी होती है, और वो हीट स्ट्रेस को हल्के में लेते हैं।


बचाव के उपाय क्या हैं?

  1. पानी और इलेक्ट्रोलाइट्स का नियमित सेवन

  2. अत्यधिक गर्म और उमस भरे माहौल में बाहर जाने से बचाव

  3. हल्के और ढीले कपड़े पहनना

  4. थर्मामीटर से नहीं बल्कि शरीर की प्रतिक्रिया से गर्मी को पहचानना

  5. अधिक पसीना आने पर लक्षणों को नजरअंदाज न करना


कम तापमान में ज्यादा गर्मी का अहसास सिर्फ एक असहज अनुभव नहीं, बल्कि गंभीर मेडिकल अलर्ट है। ये न केवल हमारी शारीरिक बल्कि मानसिक सेहत पर भी असर डाल सकता है।

ऐसे में जरूरी है कि लोग तापमान से अधिक 'हीट इंडेक्स' को समझें और अपने शरीर की चेतावनी संकेतों को गंभीरता से लें।

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