क्या बिहार में धनबल से जीतते हैं चुनाव? आंकड़े खोलते हैं परतें

बिहार की 243 सदस्यीय विधानसभा में 2020 तक 81 फीसदी विधायक करोड़पति बन चुके हैं, लेकिन जो बात सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली है वो ये कि महिला विधायकों की हिस्सेदारी सिर्फ 11% रह गई है।

मतलब साफ है यानि सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने की दौड़ में जहाँ धनबल ने उड़ान भरी, वहीं महिलाओं की भागीदारी लगातार गिरती चली गई।

दरअसल, 2025 के चुनाव से पहले ये आंकड़े बिहार की राजनीतिक तस्वीर का आईना हैं।

जनता अब केवल भाषण नहीं सुनती, वो उम्मीदवार का इतिहास, हैसियत और छवि - तीनों को तौलती है।

और ऐसे में ये जानना ज़रूरी हो जाता है कि आखिर बीते तीन चुनावों में ये दो सबसे अहम पहलू - धनबल और महिला प्रतिनिधित्व - कैसे बदले।


81% करोड़पति विधायक और गिरती महिला भागीदारी - कितना बदला बिहार?

अगर साल 2005 से शुरू करें तो आंकड़े खुद चीख-चीखकर बताते हैं कि बिहार की राजनीति में किस तेजी से पैसे वालों की दखलदारी बढ़ी और महिलाएं हाशिए पर जाती गईं।

2005 में मात्र 3% विधायक करोड़पति थे। वही आंकड़ा 2010 में 19% पर पहुंचा, 2015 में 67% और आख़िरकार 2020 में 81% विधायकों के पास करोड़ों की संपत्ति रही।

वहीं, महिला विधायकों का हाल हर चुनाव में और कमजोर होता चला गया। 2005 में 35 महिलाएं (14%) विधानसभा में पहुँची थीं। 2010 में वही संख्या 34 रही।

2015 में गिरकर 28 हुई और 2020 में तो सिर्फ़ 26 महिलाएं ही जीत सकीं - यानी कुल विधायकों का महज 11 फीसदी।


करोड़ों में खेलती पार्टियां - किसकी औसत कितनी?

अब बात करें राजनीतिक दलों की, तो 2020 में सबसे अमीर विधायक मोकामा से राजद के अनंत कुमार सिंह रहे, जिनकी संपत्ति 68 करोड़ रुपये थी।

कांग्रेस के अजीत शर्मा 43 करोड़ से ऊपर की संपत्ति के साथ दूसरे नंबर पर रहे। तीसरे नंबर पर रहीं नवादा से राजद की विधायक विभा देवी, जिनकी संपत्ति 29 करोड़ थी।

औसत संपत्ति की बात करें तो राजद विधायकों की औसत संपत्ति 5.92 करोड़, कांग्रेस की 5.18 करोड़, जदयू की 4.17 करोड़ और भाजपा की 3.56 करोड़ रुपये रही। साफ है - पार्टी कोई भी हो, धनबल सभी जगह मजबूत होता गया।


15 सालों के आंकड़ों की जुबानी, बदलाव की कहानी

2005 में कुल 8 करोड़पति विधायक थे। 2010 में ये संख्या 48 हो गई। 2015 में सीधा उछलकर 160 तक पहुँची और 2020 में तो 194 विधायक करोड़पति निकले।

वही महिला प्रतिनिधित्व 2005 में 35 से घटकर 2020 में 26 पर आ गया। ये गिरावट महज एक आंकड़ा नहीं, बल्कि गंभीर सामाजिक चिंता है।

2005 में औसत विधायक संपत्ति 27 लाख के करीब थी, 2010 में 81 लाख, 2015 में 3.06 करोड़ और 2020 में 4.32 करोड़ रुपये। साफ है कि पिछले 15 सालों में विधायकों की औसत संपत्ति 16 गुना से ज़्यादा बढ़ गई।


धन और महिला प्रतिनिधित्व अब क्या सवाल उठते हैं?

गौर करने वाली बात ये है कि जिस रफ्तार से धनबल ने राजनीति में जगह बनाई, उस रफ्तार से महिला प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ सका।

ये अपने आप में बिहार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े करता है। महिला सशक्तिकरण की बातें तो खूब होती हैं, मगर जमीनी स्तर पर तस्वीर अलग है।

इसके अलावा, अमीर विधायकों की संख्या बढ़ने का सीधा असर आम आदमी की भागीदारी पर भी पड़ता है।

क्या कोई साधारण मध्यमवर्गीय प्रत्याशी अब विधानसभा की कुर्सी तक पहुंच सकता है? या फिर राजनीति अब केवल पैसे वालों की जागीर बनकर रह गई है?


तो क्या कहानी के सिरे में कुछ बदलेगा 2025 में?

अब जब 2025 का विधानसभा चुनाव नजदीक है, सवाल बड़ा ये है कि क्या जनता इस बार किसी बदलाव की उम्मीद में वोट देगी? क्या महिलाएं संख्या में बढ़ेंगी? और क्या कोई ऐसा चेहरा उभरेगा जो बिना धनबल के भी जनबल से जीत दर्ज करेगा?

हालांकि ये तय है कि चुनावी रुझान अब केवल जाति, धर्म और दल तक सीमित नहीं रह गए हैं। जनता अब उम्मीदवार की संपत्ति, छवि और सामाजिक संतुलन - हर पहलू पर नज़र डालती है।

ऐसे में 2025 का चुनाव बिहार की राजनीति में एक नया मोड़ ला सकता है… या फिर सब कुछ पहले जैसा ही रहेगा।

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