बिहार का वो राज जिसने पहला एयर-कंडीशन्ड महल बनाया, आज खंडहर में तब्दील

सोचिए, अगर कोई आपसे कहे कि भारत में एक ज़मींदार ऐसा था जिसने न सिर्फ़ पहले भूकंपरोधी मकान बनाए, बल्कि 1930 के दशक में एयर-कंडीशनिंग सिस्टम भी लगवा दिया था, तो शायद आप कहें, "फिल्मी बात है!"

मगर नहीं जनाब, ये कोई सिनेमाई कल्पना नहीं, ये है बिहार के दरभंगा राज की हकीकत, जिसकी भव्यता कभी पूरे भारत में मिसाल हुआ करती थी... और आज? 

आज बस दीवारें बची हैं, उनपर ठेलेवाले का विज्ञापन और दीमकों की दास्तान।


दरभंगा राज: जहाँ से शुरू होती है एक विस्मृत गौरवगाथा

दरअसल, मिथिला की धरती पर बसे इस राजवंश की शुरुआत मुग़ल काल से जुड़ी हुई है। 1765 में अंग्रेजों के आने के बाद भी, ये ब्राह्मण वंश ‘वन-नो-बेली राजा’ की पदवी के साथ ज़मींदारी व्यवस्था में अपना रसूख बनाए रहा।

यही नहीं, 19वीं शताब्दी में दरभंगा राज भारत का सबसे समृद्ध ज़मींदार राज्य बनकर उभरा। पूरे 4495 गाँव, दर्जनों सर्किल, फैक्ट्रियाँ, अखबार, सब इसके पास थे।


सिर्फ़ राज नहीं, समाज को दिशा देने वाले महाराजा

बात करें महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह की, तो ये वही शख्स थे जिन्होंने 1873 के भीषण सूखे में बिना एक पल गंवाए 3 लाख रुपये दान में दे दिए।

सड़कें बनाईं, पुल बनाए और गरीबों के लिए राहत शिविर भी चलवाए। महाराजा रमेश्वर सिंह और फिर कामेश्वर सिंह ने भी इसी विरासत को आगे बढ़ाया।

कामेश्वर सिंह तो शिक्षा के इतने बड़े संरक्षक बने कि पटना यूनिवर्सिटी से लेकर दरभंगा संस्कृत यूनिवर्सिटी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) तक को आर्थिक मदद देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

इतना ही नहीं, गांधी जी ने भी उन्हें “एक पुत्र समान” कहा था।


भूकंप आया, महल गिरे... पर हिम्मत ना टूटी

15 जनवरी 1934, बिहार में 8.3 तीव्रता का भूकंप आया जिसने दरभंगा की ज़मीन हिला दी। मगर महाराजा कामेश्वर सिंह ने इसे अवसर में बदला।

नारगौना पैलेस बना, देश का पहला भूकंप-रोधी और एयर-कंडीशन्ड भवन! साथ ही लख्स्मेश्वर विला और रबरग पैलेस को भी नए सिरे से खड़ा किया गया।

नए मार्केट, प्रेस, यूरोपीय गेस्ट हाउस, सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से बना।


भव्यता की कहानी, मंदिरों और महलों में दर्ज

रामबाग पैलेस, लख्स्मेश्वर विला, नारगौना पैलेस, बेला पैलेस और मोटी महल, इनमें हर एक की अपनी कहानी थी। राजनगर (मधुबनी) का नवलखा पैलेस और दिल्ली का दरभंगा हाउस इस रियासत की देशव्यापी उपस्थिति के गवाह हैं। श्यामा मंदिर, मनोकामना मंदिर और कंकाली मंदिर, ये सब उस समय के आध्यात्मिक-धार्मिक सोच की झलक देते हैं।


आज़ादी आई... ज़मींदारी गई, पर साथ में इतिहास भी खो गया

1947 में जब देश आज़ाद हुआ, तब ज़मींदारी को खत्म कर दिया गया। कामेश्वर सिंह 1962 में चल बसे और बिना उत्तराधिकारी के यह गौरवशाली राज धीरे-धीरे सरकारी इमारतों में समा गया।

लख्स्मेश्वर विला अब KSDSU का हिस्सा है, बाकी भवन LN Mithila University में बदल गए। यानी जो कभी सत्तासीन थे, अब संस्थानों की चौखट पर खड़े हैं।


बचे सिर्फ़ खंडहर, और कुछ गुस्साए लोग

रामबाग किला आज वीरान पड़ा है। किले की दीवारों पर गंदगी, भित्तियाँ और बेफिक्री के निशान हैं।

जहां कभी पोलो ग्राउंड था, अब वहीं विश्वविद्यालय का मैदान है जिसमें भूतकाल की कोई रेखा खोजनी हो तो दीवारें तक जवाब दे दें।

स्थानीय निवासी आशिष झा कहते हैं, “अब ठेले और दुकानें हैं, कोई विरासत नहीं।” फिल्मकार नितिन चंद्र साफ़ कहते हैं, “बिहार को राजस्थान से सीख लेनी चाहिए।”

नारगौना पैलेस, जो एक ज़माने में गर्व की बात था, आज विभागीय दफ्तर है और वास्तुशिल्प की मूल पहचान मिट रही है।


राजसी ‘वफ़ादारी’ और आज़ादी का ‘समर्थन’, एक साथ!

गौर करने वाली बात ये भी है कि अंग्रेजों के दौर में भी ये महाराजा दोहरी भूमिका निभाते रहे।

एक ओर कानूनी तौर पर ब्रिटिश सरकार के वफादार बने रहे, वहीं दूसरी ओर आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस को चुपचाप आर्थिक मदद भी दी।

यानी तख्त और तहरीर, दोनों की चाल को समझने वाले खिलाड़ी थे ये।


अब सवाल ये है...

इतिहास की किताबों में अगर जयपुर, उदयपुर, जोधपुर जैसे रजवाड़ों को पूरा अध्याय मिलता है, तो दरभंगा क्यों छूट जाता है?

क्यों आज भी सरकारें इस विरासत को “अतीत का बोझ” मानती हैं? दरभंगा राज की धरोहर, अगर आज भी सहेजी जाए, तो ये न सिर्फ़ बिहार बल्कि पूरे देश की शान बन सकती है।

पर शायद... आज हम इतने आगे बढ़ चुके हैं कि पीछे मुड़कर देखना अब बस एक "रिकॉर्ड की बात" रह गई है।

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