ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
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सऊदी अरब और पाकिस्तान ने बुधवार को एक अहम रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इस समझौते के तहत किसी एक देश पर हमला दूसरे देश पर हमला माना जाएगा। यानी अब पाकिस्तान और सऊदी अरब ने आपसी सुरक्षा और रक्षा को लेकर एक तरह की साझेदारी मजबूत कर ली है।
परमाणु हथियारों का जिक्र और रणनीतिक सहयोग
रॉयटर्स से बातचीत में एक वरिष्ठ सऊदी अधिकारी ने बताया कि इस समझौते में हर तरह का सैन्य सहयोग शामिल होगा। जब उनसे पूछा गया कि क्या इसमें पाकिस्तान के परमाणु हथियार भी शामिल हो सकते हैं, तो उन्होंने 'हां' में जवाब दिया। यह बयान काफी गंभीर माना जा रहा है क्योंकि पाकिस्तान के पास ऐसे परमाणु हथियार और मिसाइल सिस्टम हैं जो पूरे मध्य-पूर्व, यहां तक कि इजराइल तक मार कर सकते हैं।
अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका के राजदूत रह चुके जलमय खलीलजाद ने इस समझौते पर टिप्पणी करते हुए कहा कि भले ही यह औपचारिक 'संधि' नहीं है, लेकिन यह एक बड़ी रणनीतिक साझेदारी है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या सऊदी अब अमेरिका की सुरक्षा गारंटी पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहना चाहता? यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या सऊदी लंबे समय से पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम का अघोषित समर्थक रहा है।
भारत की प्रतिक्रिया
भारत सरकार ने इस समझौते पर अपनी प्रतिक्रिया दी है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि सरकार को इस समझौते की जानकारी थी और भारत इसके असर का गहराई से अध्ययन करेगा। उन्होंने कहा कि भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।
यह कोई पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान ने किसी देश के साथ ऐसा समझौता किया हो। 1954 में पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ म्यूचुअल डिफेंस असिस्टेंस एग्रीमेंट (MDAA) साइन किया था, जिसके तहत दोनों देशों ने सैन्य सहयोग का वादा किया था। इसके अलावा पाकिस्तान SEATO और CENTO जैसे संगठनों में भी शामिल हुआ था। लेकिन 1979 में ईरान क्रांति और पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर अमेरिकी नाराजगी के चलते ये समझौते टूट गए।
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