ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
देहरादून की सुरम्य घाटियों में स्थित खलंगा वॉर मेमोरियल सिर्फ काष्ठ और पत्थर नहीं है; ये 1814 की खट्टी-मीठी वीरगाथा की गवाही है।
उस वक्त यहाँ 350 गोरखा सैनिकों ने 3,500 से ज्यादा अंग्रेजों को मौत के मुंह में भेज दिया, और अंग्रेज़ों ने उनकी बहादुरी का सम्मान करते हुए स्मारक बनवाया।
खलंगा युद्ध का संघर्ष और हलचल
साल 1814 में ईस्ट इंडिया कंपनी की विस्तारवादी नीति के तहत अंग्रेज़ों ने देहरादून में पहुँचाई अपनी सेना, जिसकी कमान संभाली मेज़र जनरल रोलो गिलीस्पी ने, जहाँ लड़ाकू गोरखा कमांडर बलभद्र थापा ने खलंगा/नालापानी किले में 600 योद्धाओं के साथ जंग छेड़ दी ।
घाटियाँ, तीखी ढलान, और गोरखों की खुकरी ने अंग्रेज़ों के आधुनिक तोप, बंदूक और गोला-बारूद को भी मात दी।
इस संघर्ष में गोरखा सैनिकों ने लगभग 781 अंग्रेजों को ढेर किया, जिसमें 31 अंग्रेज अफसर भी शामिल थे।
वीर बलभद्र थापा: गोरखा शौर्य की रीढ़
ये संघर्ष केवल संख्या की लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक अदम्य इच्छा की लड़ाई थी। जब अंग्रेज़ों ने पानी की व्यवस्था काट दी, तब भी गोरखा सैनिकों ने 30 नवंबर 1814 तक विजय की भावना नहीं छोड़ी।
आखिर में थापा और उनके साथियों की वीरगति हुई, मगर उनके अदम्य साहस ने अंग्रेज़ों की सोच बदल दी।
फिरंगी बने प्रशंसक: खलंगा में गौरव स्वीकार
इतिहास में शायद पहले भी ऐसा हुआ हो, लेकिन ये पहली बार था जब अंग्रेज़ों ने अपने दुश्मनों को सम्मान देते हुए ट्विन ओबेलिस्क मेमोरियल बनवाया, एक मेजर जनरल गिलीस्पी की याद में और दूसरा गोरखा सेना के वीरों के सम्मान में।
ये ही नहीं, अगली जुलाई में गोरखा रेजीमेंट की नींव रखी गई, जिसे अंग्रेज़ों ने खुद ही शामिल किया ।
मेमोरियल की कहानी और महत्व
आज खलंगा वॉर मेमोरियल, जिसे अंग्रेज़ी में Khalanga/Kalinga War Memorial भी कहते हैं, देहरादून में सहस्रधारा रोड पर स्थित है।
ये ASI की देखरेख में है और हर साल नवंबर में आयोजित खलंगा मेला और श्रद्धांजलि सभा यहाँ होती है, जहाँ गोरखा समुदाय और सैलानी ऐतिहासिक गौरव को जीवित रखते हैं ।
तो निष्कर्ष ये समझा जा सकता है कि ये सिर्फ एक युद्ध की कहानी नहीं, बल्कि आत्मबलिदान, आदर्श और सम्मान की कहानी है।
600 गोरखाओं ने उस दिन ये साबित कर दिया कि जब हौसला और निष्ठा साथ हों, तो संख्या मायने ही नहीं रखती।
खलंगा की मिट्टी में अब भी गूँजती है छोटी-सी ताकत जिसे इतिहास कभी भूल नहीं पाएगा।
आप क्या सोचते हैं इस खबर को लेकर, अपनी राय हमें नीचे कमेंट्स में जरूर बताएँ।
Comments (0)
No comments yet. Be the first to comment!