भारत में दहेज कानून: कब हुआ निर्माण, कितनी सजा, और क्या-क्या बदलाव

भारत में शादी को हमेशा से पवित्र और सामाजिक बंधन माना जाता है। यह सिर्फ दो व्यक्तियों का नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन होता है। लेकिन इस पवित्र बंधन पर दहेज जैसी कुरीति ने हमेशा से दाग लगाया है। हर साल जाने कितनी बेटियाँ इस प्रथा की बलि चढ़ जाती हैं। हाल ही में ग्रेटर नोएडा का निक्की केस इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहां ससुरालवालों ने दहेज के लिए उसे जिंदा जला दिया। अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गई और परिवार हमेशा के लिए टूट गया।

 दहेज प्रथा की जड़ें

 अगर इतिहास पर नज़र डालें तो दहेज की शुरुआत बेटियों को आर्थिक सुरक्षा देने के एक साधन के रूप में हुई थी। यह माता-पिता द्वारा बेटी को संपत्ति, धन और सामान देने का तरीका था ताकि शादी के बाद वह सुरक्षित रह सके। लेकिन समय के साथ यह परंपरा लालच और शोषण का ज़रिया बन गई। अब यह स्थिति है कि गाँव से लेकर शहर तक, गरीब से लेकर अमीर परिवारों तकहर जगह यह कुप्रथा ज़हरीली बेल की तरह फैल चुकी है।

 दहेज के खिलाफ पहला कानून

 इसलिए भारत सरकार ने इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 बनाया। 1 जुलाई 1961 से लागू इस अधिनियम के तहत दहेज लेना या देना दोनों को अपराध माना गया। इसके बावजूद यह प्रथा कम होने के बजाय और विकराल रूप लेती गई।

 दहेज कानून के तहत सजा

 दहेज निषेध अधिनियम, 1961 और भारतीय दंड संहिता (IPC) की विभिन्न धाराओं के तहत दहेज से संबंधित अपराधों के लिए सजा का प्रावधान है। मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं:

 दहेज निषेध अधिनियम, 1961:

 धारा 3: दहेज देने या लेने पर न्यूनतम 5 वर्ष की सजा और 15,000 रुपये का जुर्माना या दहेज की राशि (जो भी अधिक हो)

धारा 4: दहेज की मांग करने पर 6 महीने से 2 वर्ष तक की कैद और 10,000 रुपये तक का जुर्माना।

धारा 8: ये अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती हैं, जिससे सजा को और सख्त किया गया है।

 

भारतीय दंड संहिता (IPC):

 धारा 498A (दहेज प्रताड़ना): पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा दहेज के लिए महिला को मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना देने पर 3 वर्ष तक की कैद और जुर्माना। इसमें मानसिक क्रूरता, ताने मारना, या आत्महत्या के लिए उकसाना शामिल है।

धारा 304B (दहेज हत्या): यदि विवाह के 7 वर्ष के भीतर महिला की असामान्य परिस्थितियों में मृत्यु होती है और यह साबित हो कि मृत्यु से पहले उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया, तो न्यूनतम 7 वर्ष की सजा, जो आजीवन कारावास तक हो सकती है।

धारा 406 (स्त्रीधन की हेराफेरी): यदि पति या ससुराल वाले स्त्रीधन को लौटाने से मना करते हैं, तो 3 वर्ष तक की कैद, जुर्माना, या दोनों।

 कानून में हुए बदलाव

 हालांकि 1980 के दशक में दहेज से जुड़ी मौतें तेजी से बढ़ने लगीं। इस पर नियंत्रण के लिए 1983 में भारतीय दंड संहिता (IPC) में धारा 498 जोड़ी गई। इस धारा के तहत पति या उसके परिवार द्वारा महिला पर की गई शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना को अपराध माना गया। इसके बाद आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 198 भी लाई गई।

 1986 में एक और बड़ा प्रावधान जोड़ा गयाआईपीसी की धारा 304बी, जिसे दहेज हत्या की धारा कहा जाता है। इसके अनुसार, अगर शादी के सात साल के भीतर किसी महिला की असामान्य परिस्थितियों में मौत होती है और उसमें दहेज उत्पीड़न का मामला सामने आता है, तो पति और उसके परिवार पर दहेज हत्या का केस बनता है। इसमें न्यूनतम सज़ा 7 साल और अधिकतम उम्रकैद है।

 2005 में महिलाओं को अतिरिक्त सुरक्षा देने के लिए घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम लाया गया। इसके साथ ही, धारा 406 (दहेज से जुड़ी चीज़ों में धोखाधड़ी या विश्वासघात) और साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी भी जुड़ीं, जिसके तहत शादी के सात साल के भीतर होने वाली संदिग्ध मौतों को दहेज से जुड़ा मानकर सख्त कार्रवाई की जाती है।

 आज भी क्यों जारी है दहेज प्रथा?

 कानून बनने और सख्त सज़ाओं के बावजूद दहेज प्रथा पर पूरी तरह अंकुश नहीं लग पाया। सामाजिक दबाव, आर्थिक असमानता और मानसिकता का बदलाव होना इसके मुख्य कारण हैं। परिवार अब भी लड़के को "कीमत" की तरह देखते हैं और लड़कियों के परिवार को मजबूरी में झुकना पड़ता है।

 बहरहाल, अब निक्की जैसी घटनाएँ हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या केवल कानून काफी है? असली बदलाव तभी आएगा जब समाज अपनी सोच बदलेगा और दहेज को एक अपराध की तरह देखना शुरू करेगा। बेटियों को बोझ नहीं, बल्कि परिवार की ताकत समझा जाएगा। आज वक्त है कि हम सब मिलकर इस कुरीति के खिलाफ खड़े हों। क्योंकि दहेज सिर्फ एक परिवार की समस्या नहीं, बल्कि पूरे समाज पर लगा वह कलंक है, जिसे मिटाना हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है।

 

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