चंद्रशेखर आजाद की वो दास्तान, जब वो बने थे महंत के शिष्य, पर ये चुनाव उन्ही पर भारी पड़ गया!

चंद्रशेखर आजाद को हम सबने गोली चलाते, अंग्रेजों से भिड़ते, जंगलों में छिपते सुना है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि वही आजाद किसी मठ में घंटा बजा रहे होंगे, आरती कर रहे होंगे, गुरुमुखी पढ़ रहे होंगे और महंत के लिए दूध गर्म कर रहे होंगे? सुनने में अजीब लगता है, पर यही सच है।


कहां फंसे थे आजाद और क्यों?


बात उस दौर की है जब क्रांतिकारी धन के लिए दर-दर भटकते थे। अंग्रेजों से लड़ाई आसान नहीं थी, और पैसों के बिना तो बिल्कुल भी नहीं।


ऐसे में खबर आई कि गाजीपुर के पास एक बीमार महंत हैं, जिनके पास खूब संपत्ति है और उन्हें एक उत्तराधिकारी की तलाश है। यहीं से शुरू होती है आजाद की मठ वाली कहानी।


पार्टी का फैसला हुआ कि आजाद वहां जाएं और शिष्य बनकर संपत्ति पर पकड़ बनाएं। योजना ये थी कि महंत जल्द ही संसार छोड़ देंगे और मठ की दौलत क्रांतिकारियों के काम आएगी। गोविंद प्रकाश उर्फ रामकृष्ण खत्री पहले से साधु रहे थे, सो उन्होंने सारा बंदोबस्त कर दिया।


गेरुए वस्त्र में आजादी की जंजीर


चंद्रशेखर आजाद मठ पहुंचे। क्रांति की आग लिए एक युवक अब भजन-कीर्तन कर रहा था।


उन्हें गुरुमुखी सीखनी पड़ी, जपजी साहिब याद करनी पड़ी, और दिनभर पूजा-पाठ में समय बिताना पड़ता था। ऐसे में वो आजाद, जो देश को आजाद करने निकला था, खुद ही कैद हो गया।


'ये महंत नहीं मरेगा...'


2 महीने तक आजाद ने खुद को जबरन उस चोले में ढाला। लेकिन भीतर ही भीतर उबलते रहे। फिर एक दिन उन्होंने चोरी-छिपे खत्री को खत लिखा, 'ये महंत नहीं मरेगा, मुझे यहां से छुटकारा दिलाओ।'


खत्री और मन्मथनाथ गुप्त साधु और भक्त बनकर मठ पहुंचे। आजाद से मुलाकात हुई। गेरुए वस्त्र में वो दिखे, मगर चेहरा थका, झुंझलाया हुआ था। बोले, 'ये खूब दूध पीता है, दंड पेलता है। मैं अब और नहीं सह सकता।'


मिशन फेल, लेकिन यादगार


क्रांतिकारियों को लगा था कि ये ‘ऑपरेशन-मठ’ उन्हें बड़ी मदद देगा। मगर दो महीने की मेहनत और चेलाही के बावजूद नतीजा शून्य रहा।


आजाद साथियों के पास लौटे और मठ की गाथा सुनाई, तो सभी हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए।


भूख और बलिदान का सच


क्रांति कोई फिल्मी तमाशा नहीं थी। आजाद और उनके साथी दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करते थे। विश्वनाथ वैशंपायन लिखते हैं कि एक आना नाश्ते के लिए मिलता था और दाल-रोटी ही एकमात्र भोजन होता था। खाना खुद बनाना पड़ता था।


गौर करने वाली बात ये है कि आजाद ने अपने माता-पिता के लिए मिले दो सौ रुपए भी पार्टी पर खर्च कर दिए। कहा, 'मेरे माता-पिता भूखे रह सकते हैं, लेकिन देश के दीवानों को भूखा नहीं रहने दूंगा।'


सिर्फ 15 की उम्र में आंदोलन


आजाद की शुरुआत गांधी जी के असहयोग आंदोलन से हुई थी। 1921 में उन्हें 15 बेंतों की सजा मिली, जो खून तक बहा गई।


मगर उन्होंने 'भारत माता की जय' बोलते हुए ये सजा कुबूल की। अदालत में उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वाधीनता’ और पता ‘जेलखाना’ बताया था।


गांधी से मोहभंग और हथियारों की राह


1922 में जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो आजाद टूट गए। बंगाल के क्रांतिकारी संपर्क में आए और जल्द ही ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन’ से जुड़ गए।


फिर आया काकोरी कांड, सरकारी खजाना लूटने की हिम्मत। अंग्रेजों ने चार साथियों को फांसी दी, कई को काला पानी भेजा, लेकिन आजाद और कुंदनलाल गुप्त हाथ न आए।


जब आजाद ने संगठन संभाला


बिस्मिल के बाद संगठन आजाद ने संभाला। सांडर्स की हत्या, असेम्बली में बम फेंकना, भगत सिंह की गिरफ्तारी, ये सब आजाद के नेतृत्व में हुआ।


मगर समय को शायद ये मंजूर नहीं था, और धीरे-धीरे संगठन बिखरता गया। फिर वो दिन भी आया जब अल्फ्रेड पार्क में उन्हें घेर लिया गया।


आखिरी गोली तक लड़े आज़ादी की लड़ाई


27 फरवरी 1931, अंग्रेजों ने घेर लिया था। आजाद ने गोली चलाई, लेकिन उनकी जांघ में भी गोली लग चुकी थी।


जब चारों तरफ से पुलिस ने घेर लिया, तो उन्होंने खुद को गोली मार ली। वादा निभाया, 'आजाद हूं, आजाद ही मरूंगा।'


आजाद की मठ वाली ये कहानी इस बात की गवाही है कि क्रांतिकारी सिर्फ बंदूक चलाने वाले नहीं थे।


वो कभी पुजारी बने, कभी भूखे रहे, कभी अपनों को भूखा रखा, मगर देश की आजादी के लिए कुछ भी किया, हर चोला पहना, हर धोखा भी जिया।


आप क्या सोचते हैं इस खबर को लेकर, अपनी राय हमें नीचे कमेंट्स में जरूर बताएँ।


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