ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
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भारत
को त्योहारों का देश कहा जाता है, और दिवाली इन त्योहारों का राजा है। लेकिन अगर आप
दिवाली का सबसे दिव्य और अलौकिक रूप देखना चाहते हैं, तो आपको एक बार देवों की नगरी
काशी यानी वाराणसी जरूर आना चाहिए। इस साल भी दिवाली की रात, वाराणसी के दशाश्वमेध
घाट पर जो नजारा था, उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। मां गंगा के किनारे जब हजारों
दीयों की लौ एक साथ जली और महा-आरती के मंत्रोच्चार गूंजे, तो लगा जैसे स्वर्ग खुद
धरती पर उतर आया हो। यह सिर्फ एक आरती नहीं, बल्कि एक ऐसा अनुभव था जिसने वहां मौजूद
हर व्यक्ति को भक्ति और ऊर्जा से सराबोर कर दिया।
वाराणसी, जिसे दुनिया का सबसे पुराना जीवित शहर माना जाता है, अपने घाटों और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। और इन घाटों में सबसे प्रमुख है दशाश्वमेध घाट, जहां हर शाम होने वाली गंगा आरती विश्व प्रसिद्ध है। लेकिन दिवाली की रात यहां की आरती और भी खास हो जाती है। इस अद्भुत दृश्य का गवाह बनने के लिए देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु और पर्यटक यहां पहुंचते हैं। इस साल भी घाट पर तिल रखने की जगह नहीं थी, हर कोई उस जादुई पल को अपनी आंखों और कैमरों में कैद कर लेना चाहता था।
दीयों की रोशनी से जगमगाता गंगा का किनारा
दिवाली की शाम ढलते ही दशाश्वमेध घाट और उसके आसपास के सभी 84 घाटों को लाखों दीयों से सजाया गया। घाट की सीढ़ियों पर, मंदिरों पर, और पुरानी हवेलियों पर जलते दीये एक अद्भुत समां बांध रहे थे। जब इन लाखों दीयों का प्रतिबिंब गंगा की लहरों पर पड़ा, तो ऐसा लगा मानो नदी में भी सितारों की एक आकाशगंगा बह रही हो। यह दृश्य इतना मनमोहक था कि लोग बस एकटक उसे निहारते रह गए। नावों पर सवार होकर लोग गंगा के बीच से इस नजारे को देख रहे थे, जो उनके जीवन का एक अविस्मरणीय अनुभव बन गया।
इस मौके पर घाटों को फूलों और रंग-बिरंगी रंगोलियों से भी सजाया गया था। हर तरफ उत्सव का माहौल था। बच्चे, बूढ़े, जवान, देशी और विदेशी, हर कोई भक्ति और खुशी के इस सागर में गोते लगा रहा था। यह सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति का एक जीवंत प्रदर्शन था, जो अनेकता में एकता का संदेश दे रहा था।
महा-आरती का वो दिव्य अनुभव
जैसे ही घड़ी ने आरती का समय बताया, घाट का पूरा वातावरण बदल गया। सात पुजारियों ने अपने हाथों में बड़े-बड़े पीतल के दीप-स्तंभ उठाए और मंत्रोच्चार के साथ मां गंगा की आरती शुरू की। शंख, घंटे और घड़ियाल की ध्वनि से पूरा वायुमंडल गूंज उठा। पुजारियों का एक लय में आरती करना, धूप के धुएं का हवा में फैलना और हजारों लोगों का एक साथ हाथ जोड़कर प्रार्थना करना, यह सब मिलकर एक ऐसी ऊर्जा पैदा कर रहा था जो सीधे आत्मा को छू रही थी।
यह आरती लगभग 45 मिनट तक चली, और इस दौरान वहां मौजूद हर व्यक्ति जैसे किसी और ही दुनिया में खो गया था। यह सिर्फ एक पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति, ईश्वर और इंसान के बीच एक संवाद था। आरती के बाद हजारों लोगों ने छोटे-छोटे दीयों को पत्तों के दोने में रखकर गंगा में प्रवाहित किया, जिसे 'दीपदान' कहते हैं। नदी में तैरते ये हजारों दीये ऐसे लग रहे थे जैसे वे अपने साथ लोगों की प्रार्थनाएं और मनोकामनाएं लेकर जा रहे हों।
क्यों खास है दिवाली की गंगा आरती?
दिवाली का त्योहार अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है। और गंगा आरती का सार भी यही है - ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान के अंधकार को मिटाना। जब ये दोनों चीजें एक साथ मिलती हैं, तो उसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। दिवाली की रात गंगा आरती करना बुराई पर अच्छाई की जीत के उत्सव को उसके सबसे पवित्र रूप में मनाने जैसा है।
यह आयोजन वाराणसी की पहचान बन चुका है और यह न केवल भारत के लोगों को, बल्कि पूरी दुनिया के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह हमें हमारी समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत की याद दिलाता है। अगर आपने जीवन में कभी इस आरती को नहीं देखा है, तो अपनी अगली दिवाली वाराणसी में मनाने की योजना जरूर बनाएं, क्योंकि यह एक ऐसा अनुभव है जो आपको जीवन भर याद रहेगा।
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