ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
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ज़मीन से जुड़ी सोच और सच्ची खबरें
अगर आप सोचते हैं कि गाड़ी चोरी होने पर बीमा की रकम आसानी से मिल जाएगी, तो गाजियाबाद का ये मामला आपकी सोच बदल सकता है।
एक कार मालिक को 2003 में कार चोरी होने के बाद 2025 में जाकर बीमा की राशि मिली, और वो भी महज ₹1.48 लाख!
ये घटना बताती है कि एक छोटी सी पार्किंग भूल आपको दो दशक तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर कटवा सकती है।
कैसे शुरू हुई परेशानी?
पुनीत अग्रवाल ने 10 मार्च 2003 को मारुति ऑल्टो खरीदी थी और उसी दिन ₹1.9 लाख की बीमा पॉलिसी भी ली।
मात्र 27 दिन बाद, 6 अप्रैल 2003 को हरिद्वार के हर की पौड़ी से उनकी कार चोरी हो गई। FIR भी तुरंत दर्ज करवाई गई और बीमा कंपनी को भी सूचित किया गया।
जनवरी 2004 तक पुनीत ने सभी आवश्यक दस्तावेज बीमा कंपनी को सौंप दिए, लेकिन इसके बावजूद बीमा दावे को खारिज कर दिया गया। तर्क दिया गया कि उन्होंने गाड़ी ‘सुरक्षित स्थान’ पर पार्क नहीं की थी।
20 साल, दो कोर्ट और ढेर सारी अर्ज़ियां
बीमा कंपनी के लगातार इग्नोर करने के बाद पुनीत ने कानूनी रास्ता अपनाया। उन्होंने गाजियाबाद जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (DCDRC) में शिकायत दर्ज की, जिसे तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया गया।
इसके बाद उन्होंने लखनऊ स्थित राज्य आयोग (SCDRC) में अपील की, जहां से 2025 में निर्देश मिला कि केस गाजियाबाद आयोग के अंतर्गत ही आता है। आखिरकार, जुलाई 2025 में 22 साल की इस लड़ाई का नतीजा सामने आया।
कितना मुआवजा मिला?
गाजियाबाद आयोग ने नेशनल इंश्योरेंस कंपनी को आदेश दिया कि वो पुनीत को ₹1.43 लाख बीमा राशि और ₹5,000 मानसिक कष्ट और कानूनी खर्चों के लिए दें। यानी कुल ₹1.48 लाख।
साथ ही कहा गया कि अगर 45 दिनों में भुगतान नहीं हुआ, तो बीमा कंपनी को 6% सालाना ब्याज भी देना होगा।
क्या ये रकम वाकई मायने रखती है?
अगर हम 2003 की ₹1.9 लाख राशि पर 5% सालाना महंगाई दर का हिसाब लगाएं, तो वह आज करीब ₹5.56 लाख होती। यानी पुनीत को करीब-करीब तीन गुना कम मुआवजा मिला।
इतना ही नहीं, 2003 में खरीदी गई कार अब कानूनन सड़कों पर चलने के लायक भी नहीं है।
भारत में 15 साल से ज्यादा पुरानी गाड़ियों को स्क्रैप करने के नियम लागू हैं, और फिटनेस सर्टिफिकेट भी रिन्यू नहीं होता। यानी जो कार कभी चोरी हुई, उसका वास्तविक मूल्य अब शून्य के बराबर है।
बीमा धारकों के लिए सबक
यह मामला सिर्फ एक ग्राहक की हार नहीं, बल्कि लाखों वाहन बीमा धारकों के लिए एक चेतावनी है:
बीमा पॉलिसी पढ़कर ही साइन करें, खासकर पार्किंग से जुड़े क्लॉज।
चोरी जैसी घटनाओं में FIR और डॉक्यूमेंटेशन तुरंत करें।
बीमा कंपनी से संवाद की कॉपी और ईमेल संरक्षित रखें।
लंबे कानूनी केस में धैर्य और दस्तावेज सबसे बड़ा हथियार हैं।
क्या वाकई न्याय हुआ?
20 साल की मानसिक पीड़ा, कोर्ट-कचहरी का खर्च, और अंत में मिला ₹1.48 लाख, इस फैसले को क्या आप ‘इंसाफ’ कहेंगे या ‘समझौता’?
ये मामला बीमा कंपनियों की जवाबदेही और उपभोक्ता न्याय व्यवस्था की गति पर सवाल जरूर खड़े करता है।
पुनीत अग्रवाल को भले ही कानूनी जीत मिल गई हो, लेकिन समय और आर्थिक हानि को कोई राशि पूरा नहीं कर सकती।
आप क्या सोचते हैं इस खबर को लेकर, अपनी राय हमें नीचे कमेंट्स में जरूर बताएँ।
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