क्या है ‘स्नैपबैक’ जिसकी धमकी ने बदला ईरान का रुख, और अब बातचीत को है तैयार?

इजराइल और अमेरिका के लगातार दबाव और जवाबी हमलों के बावजूद ईरान अब तक टिका रहा, लेकिन जैसे ही ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की तरफ से संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों की धमकी आई, तेहरान का रुख तुरंत नरम हो गया।


दरअसल, इन 3 यूरोपीय देशों ने ईरान से सख्त शब्दों में कहा कि अगर वो परमाणु वार्ता पर नहीं लौटा, तो अगस्त के अंत तक 'स्नैपबैक मैकेनिज्म' के तहत पुराने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध दोबारा लगाए जा सकते हैं। इसी चेतावनी के बाद ईरान ने बातचीत की टेबल पर आने का फैसला लिया।


इजराइल-अमेरिका से टकराव, फिर भी नहीं डिगा ईरान


गौर करने वाली बात ये है कि बीते कुछ महीनों में ईरान और इजराइल के बीच टकराव चरम पर रहा।


कई बार दोनों देशों के बीच हवाई हमले हुए, मिसाइलें चलीं और अमेरिका ने भी खुलकर इजराइल का साथ दिया।


हालांकि इन हमलों से ईरान ने न तो झुकाव दिखाया और न ही अपनी नीति बदली। उसने साफ तौर पर कहा कि वो किसी भी दबाव में अपना परमाणु कार्यक्रम नहीं रोकेगा, बल्कि जरूरत पड़ी तो और तेज़ी से आगे बढ़ेगा।


पर जैसे ही ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने सख्त चेतावनी दी, तो ईरान ने यू-टर्न लेते हुए बातचीत पर सहमति जता दी।


यूरोपीय देशों का तीखा संदेश


आपको बता दें कि ये तीनों यूरोपीय देश, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी, पहले भी ईरान के साथ 2015 में हुए जॉइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) का हिस्सा रहे हैं।


उन्होंने हाल ही में ईरान को साफ तौर पर चेताया कि अगर वार्ता फिर शुरू नहीं होती या कोई ठोस प्रगति नहीं होती, तो संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध वापस लागू कर दिए जाएंगे।


इसी चेतावनी को 'स्नैपबैक मैकेनिज्म' कहा जाता है, जो 2015 की परमाणु डील में ही शामिल एक प्रावधान है।


यानी अगर ईरान डील की शर्तों का पालन नहीं करता, तो पुराने प्रतिबंध सीधे-सीधे बहाल किए जा सकते हैं।


ईरान ने स्वीकार की बातचीत की बात


ईरान के विदेश मंत्रालय ने सोमवार को घोषणा की कि वो ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के साथ परमाणु कार्यक्रम को लेकर नई वार्ता के लिए तैयार है।


इस वार्ता का आयोजन 25 जुलाई को तुर्किये (इस्तांबुल) में होगा और ये उप-विदेश मंत्री स्तर पर होगी। ईरानी मीडिया ने पुष्टि की है कि इस बैठक में चारों देशों के वरिष्ठ अधिकारी हिस्सा लेंगे।


ईरान की तरफ से बयान में ये भी कहा गया है कि बातचीत वो अपनी शर्तों पर करेगा, और धमकी या दबाव की रणनीति नहीं चलेगी।


2015 की परमाणु डील क्या थी?


साल 2015 में ईरान, अमेरिका, चीन, रूस और यूरोपीय यूनियन के बीच एक ऐतिहासिक परमाणु समझौता हुआ था।


इस डील के तहत, ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करना था, ताकि वो परमाणु हथियार न बना सके। बदले में उस पर लगे आर्थिक और सैन्य प्रतिबंधों को हटा दिया गया था।


हालांकि, 2018 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस डील से बाहर निकलने का फैसला कर लिया था। इसके बाद से स्थिति बिगड़ती गई और ईरान ने भी अपने परमाणु कार्यक्रम में फिर से तेजी ला दी।


'स्नैपबैक' से क्यों घबरा गया ईरान?


ईरान कई बार सार्वजनिक मंचों से ये कह चुका है कि उसके खिलाफ कोई भी धमकी या दबाव काम नहीं करेगा।


लेकिन अब जब ‘स्नैपबैक’ की बात हो रही है, तो ईरान को डर है कि एक बार फिर अगर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगते हैं, तो उसकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह से हिल जाएगी।


फिलहाल ईरान पहले से ही तेल निर्यात, डॉलर ट्रांजेक्शन और रक्षा उपकरण खरीद जैसे कई मामलों में अमेरिका की वजह से प्रतिबंध झेल रहा है।


अब अगर यूरोप भी इस दिशा में सक्रिय हो जाता है, तो तेहरान के लिए संकट और गहरा सकता है।


ईरान का पलटवार भी साफ


हालांकि बातचीत के लिए राजी होने के बावजूद, ईरान ने यूरोपीय देशों को भी कड़ा संदेश दिया है।


विदेश मंत्री अब्बास अरागची ने कहा कि ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी को "धमकियों और पुराने फार्मूलों" से आगे निकलकर जिम्मेदार और सम्मानजनक बातचीत करनी चाहिए।


उन्होंने कहा, "अगर यूरोपीय देश अब भी 'स्नैपबैक' जैसी रणनीति पर भरोसा करते हैं, तो उन्हें ये जान लेना चाहिए कि इससे वार्ता के रास्ते बंद हो सकते हैं।"


क्या फिर पटरी पर लौटेगी परमाणु डील?


अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या 25 जुलाई की वार्ता के बाद ईरान और पश्चिमी देशों के बीच कोई नया समझौता बन पाएगा?


अगर ईरान, यूरोप के साथ किसी ताजा फ्रेमवर्क पर सहमत होता है, तो संभव है कि भविष्य में अमेरिका की भी वापसी हो।


हालांकि, अभी किसी भी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी क्योंकि ईरान ने साफ कर दिया है कि वो अपने सुरक्षा हितों से समझौता नहीं करेगा।


आखिरी शब्दों में कहा जाए तो ईरान ने जिस सख्ती से इजराइल और अमेरिका का सामना किया, वही सख्ती यूरोप के सामने नहीं दिखा सका।


शायद इसकी वजह ये है कि अमेरिका सैन्य ताकत है, लेकिन यूरोप उसके आर्थिक जीवन रेखा से जुड़ा है।


अब सबकी निगाहें 25 जुलाई की बैठक पर हैं, जहां तय होगा कि परमाणु डील का भविष्य क्या होगा, नई शुरुआत या फिर और गहराता टकराव?


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