फांसी की शुरुआत से अब तक: इतिहास, भारत का नजरिया और निमिषा प्रिया केस!
फांसी की शुरुआत से अब तक: इतिहास, भारत का नजरिया और निमिषा प्रिया केस!
  • Category: भारत
  • Subcategory: Daily News Of India

भारतीय नर्स निमिषा प्रिया के मामले ने एक बार फिर से फांसी की सजा पर व्यापक बहस को जन्म दे दिया है।


यमन में अपने बिजनेस पार्टनर की हत्या के आरोप में निमिषा को मौत की सजा सुनाई गई थी और उसे 16 जुलाई को फांसी दी जानी थी, जो फिलहाल टाल दी गई है।


भारत में इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक याचिका पहुंच चुकी है और अब इसकी अगली सुनवाई 18 जुलाई को होनी है।


कूटनीतिक और धार्मिक दोनों स्तरों पर प्रयास जारी हैं ताकि किसी तरह उसकी जान बचाई जा सके।


लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के बीच यह सवाल भी फिर से उठ खड़ा हुआ है कि आखिर फांसी की सजा की शुरुआत कब हुई, दुनिया में इसका इतिहास क्या रहा और भारत में इसका कानूनी रूप कब अस्तित्व में आया।


इतिहास में फांसी की सजा और इसकी उत्पत्ति


दुनिया में फांसी को मृत्युदंड देने का सबसे पुराना और व्यापक रूप माना गया है। इसका इतिहास हजारों साल पुराना है।


प्राचीन सभ्यताओं जैसे मिस्र, ग्रीस और रोम में अपराधियों को मौत की सजा देने के लिए कई तरीके प्रचलित थे, जिनमें जहर देना, पत्थर मारना, आग में जलाना और सिर कलम करना शामिल था।


लेकिन फांसी देने का पहला औपचारिक और लिखित उल्लेख प्राचीन फारस में मिलता है, जहां अपराधियों को समाज के सामने सार्वजनिक रूप से लटकाया जाता था ताकि दूसरों में भय बना रहे।


मध्यकालीन यूरोप में भी फांसी को एक आम और स्वीकृत सजा के रूप में अपनाया गया। विशेषकर चोरी, हत्या, बलात्कार और देशद्रोह जैसे अपराधों के लिए फांसी का प्रयोग नियमित रूप से होता था।


इंग्लैंड में 10वीं शताब्दी के आसपास फांसी को कानूनी सजा के रूप में लागू किया गया।


उस दौर में सार्वजनिक फांसी एक सामाजिक आयोजन बन चुका था जिसे देखने के लिए भीड़ इकट्ठा होती थी।


भारत में फांसी की सजा का विकास और कानूनी स्थिति


भारत में मृत्युदंड का इतिहास प्राचीन ग्रंथों तक फैला हुआ है। मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में अपराध और दंड की स्पष्ट व्यवस्था मौजूद थी।


हालांकि उन दिनों में फांसी उतनी आम नहीं थी और अपराध की प्रकृति के अनुसार अन्य तरीके जैसे पत्थर मारना, आग में जलाना, हाथी से कुचलवाना या जहर देना ज्यादा प्रचलित थे।


आधुनिक भारत में फांसी का विधिक प्रावधान ब्रिटिश शासन के दौरान अस्तित्व में आया।


ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18वीं शताब्दी में भारतीय दंड संहिता (IPC) को लागू किया, जिसमें हत्या, बलात्कार, देशद्रोह और आतंकवाद जैसे गंभीर अपराधों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान रखा गया।


स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 21 के तहत हर व्यक्ति को जीवन का अधिकार तो दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत मौत की सजा दी जा सकती है।


1973 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि फांसी केवल ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ मामलों में ही दी जाएगी।


1980 के बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को स्थापित किया और तब से यही कसौटी मृत्युदंड के मामलों में अपनाई जाती है।


मृत्युदंड के तरीके: अतीत से आधुनिकता तक


जब फांसी का औपचारिक प्रावधान नहीं था, तब मौत की सजा देने के तरीके बेहद क्रूर और सार्वजनिक हुआ करते थे। प्राचीन भारत में अपराध के प्रकार के अनुसार सजाएं दी जाती थीं।


उदाहरण के लिए, हत्या के लिए सिर कलम करना, राजद्रोह के लिए हाथी से कुचलवाना या चोरी के लिए अंग काटना जैसी सजाएं दी जाती थीं।


मुगल काल में भी अपराधियों को सूली पर चढ़ाना, आग में जलाना या सार्वजनिक रूप से दंड देना आम बात थी।


यूरोप में गिलोटिन का प्रयोग हुआ करता था, वहीं अमेरिका ने बाद के वर्षों में इलेक्ट्रिक चेयर, गैस चैंबर और घातक इंजेक्शन जैसी तकनीकों को विकसित किया।


भारत में आज भले ही फांसी की सजा कानूनी रूप से मान्य हो, लेकिन इसका उपयोग केवल अत्यंत दुर्लभ मामलों में ही होता है और अमल में लाए जाने के मामले और भी कम हैं।


निमिषा केस और वर्तमान बहस


निमिषा प्रिया का मामला भारत में इसलिए भी चर्चा का विषय बन गया है क्योंकि इसमें भारत की एक नागरिक को विदेश में मौत की सजा मिली है और इसके खिलाफ देश में आवाजें उठ रही हैं। यह बहस सिर्फ कूटनीतिक या मानवीय नहीं बल्कि कानूनी भी बन गई है।


यह सवाल फिर से चर्चा में है कि क्या आज के दौर में फांसी जैसी सजा उचित है? क्या यह अपराध रोकने में कारगर है या फिर एक क्रूर परंपरा जिसे खत्म कर देना चाहिए?


भारत में कई मानवाधिकार संगठन इस सजा को खत्म करने की मांग कर चुके हैं, वहीं कुछ न्यायाधीश भी इसे संविधान के मूलभूत अधिकारों के विरुद्ध मानते हैं।


हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि फांसी की सजा सुनाते समय दोषी की मानसिक, सामाजिक और पारिवारिक स्थिति पर भी विचार किया जाए।


इसके अलावा, सजा के बाद उसे कानूनी सहायता, पुनर्विचार और दया याचिका का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए।


भारतीय कानून में फांसी की मौजूदा स्थिति


भले ही भारतीय दंड संहिता (IPC) की जगह अब भारतीय न्याय संहिता (BNS) ने ले ली हो, लेकिन फांसी का प्रावधान अभी भी बरकरार है।


हत्या, सामूहिक बलात्कार, आतंकवाद, देश के खिलाफ युद्ध जैसे अपराधों के लिए अब भी मौत की सजा दी जा सकती है।


नए कानूनों में भी यह व्यवस्था की गई है कि ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ सिद्धांत लागू रहेगा और राष्ट्रपति के पास दया याचिका का अधिकार भी पहले की तरह मौजूद रहेगा।


आप क्या सोचते हैं इस खबर को लेकर, अपनी राय हमें नीचे कमेंट्स में जरूर बताएँ।


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